(साभार- हिन्द-युग्म)
प्रस्तुत है "कर्ण कायस्थ चिठ्ठी" के प्रधान सम्पादक "युनि कवि" श्री करण समस्तीपुरी की एक पुरस्कृत रचना।तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत!!
वह मधुमय संसार सुहाना,
वह स्वर्णिम शैशव का हास!
सह-क्रीड़ा, साहचर्य हमारा,
बन कर रहा शुष्क इतिहास!!
क्या ये आँख मिचौनी ही है,
जरा बता बचपन के मीत!
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!
कोतूहल कलरव पीपल तल,
बृहद् विटप की शीतल छाँव!
तटिनी तट फैला सिकतांचल,
स्नेह-सुधानिधि सुंदर गांव!
पगडण्डी पर आँख बिछाए,
गए कई निशि-वाषर बीत!
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!
अश्रु शेष केवल आंखों में,
सपने तक नहीं आते हैं!
उस पीड़ा को क्या जानो तुम,
जब अपने छोड़ के जाते हैं!
याद तुम्हीं को करना प्रतिपल,
मेरे जर-जीवन की रीत!
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत!!
5 comments:
awesomeeee...!!![:)]
नमस्कार,
तारतम्य शब्दों का हो या भावों का,दोनों बहुत खूब बन पडे हैं। तत्सम शब्दों का प्रयोग अद्भुत है।
कोतूहल कलरव पीपल तल,
बृहद् विटप की शीतल छाँव!
तटिनी तट फैला सिकतांचल,
स्नेह-सुधानिधि सुंदर गांव!
पगडण्डी पर आँख बिछाए,
गए कई निशि-वाषर बीत!
तुम ही नहीं रहे मेरे प्रिये,
किसे सुनाऊं अपने गीत !!वाह! शब्दों में भावों को क्या खूब संजोया है!!
आशा है हमें यूँ ही इस ब्लौग पर समस्तीपुरी जी की रचनाएँ पढने को मिलती रहेंगी।
धन्यवाद!!
नमस्कार !!!
उम्मीद के अनुसार एही ब्लॉग पर उत्कृष्ट रचना सब के पोस्ट शुरू भ गेल ओही लेल बहुत बहुत धन्यवाद ....... श्री करण जी के द्वारा रचित और श्रीमान कुंदन जी के माध्यम स एही ब्लॉग पर लायल इ कविता अद्भुत अछि ! और आशा करैत छि जे समय समय पर हमरा सब के औरो सब गोटे के अमूल्य रचना के रसपान करैके अवसर प्राप्त होयत !!!
धन्यवाद !!
राजेश कुमार
जामनगर
गुजरात
यूँ ही कोई "युनि कवि" नहीं बन जाता। अतिसुन्दर ! शुभकामना!!
अब मैं क्या कहूँ ?
आपका प्यार, आपका आभार !!
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