(मेरी पहली कविता जो मैंने वर्ष 2000 में लिखी थी- कुन्दन कुमार मल्लिक )
मेरे एक मित्र हैं,
मेरे बहुत ही नजदीक,
परंतु एक दूरी लिए खास,
गढते हैं नयी-नयी परिभाषा,
देते हैं नये रूप सभी को,
अपनी आवश्यकताओं के अनुरुप,
अपने जरुरत के हिसाब से,
आजकल वो हैरान हैं
कुछ परेशान हैं, मिले थे कल,
कह रहे थे अपने मन की व्यथा,
अपने एक महिला सहकर्मी के लिए,
परंतु इसे भी वो करते हैं परिभाषित,
कभी कहते इसे जीवन की एक खूबसूरत जरुरत,
तो कभी कहते उपभोग की वस्तु मात्र,
मैं खुद हैरान हूँ, परेशान हूँ,
क्यूँ नहीं समझ पाता उन्हें,
कहीं यह मेरी मानसिक कमजोरी है,
या मैं दुनिया की इस दौड में पीछे रह गया,
या फिर वो खुद हैं एक अबूझ पहेली।
4 comments:
कहीं यह मेरी मानसिक कमजोरी है,
या मैं दुनिया की इस दौड में पीछे रह गया,
या फिर वो खुद हैं एक अबूझ पहेली।
...NAHI SAAHAB AAP BHI HAMARI TARAH EK KAVI HRIDAY RAKHTE HAIN...
...UMDA LEKHAN KE LIYE BADHAI...
asmanjas!!!
asmanjas mein hum hai ki pehli kavita itni ummada likhi hai....aage aane wale kavitaon ke liye hum taareef kin sahbdo mein karenge..[:)]
ati sundar..!!!
नमस्कार,
कविता का विषय बडा मजेदार चुना है आपने।आधुनिक शहरी जीवन का एक कटु पक्ष आपने इस रचना में दर्शाया है।और हाँ, इस अबूझ पहेली के पीछे क्या मानसिकता होती है लोगों की,ये तो ना हम समझ पाते हैं,ना वो लोग खुद,जिनकी चर्चा आपने की।
आशा करें की महिलाओं के प्रति इस अबूझ मानसिकता रूपी पहेली शीघ्र सुलझ जाए!
इस विषय-प्रबल रचना के लिए बधाई!
धन्यवाद!!
मुझे शक है कि ये दास्ताँ आपके मित्र की है या ...........
जिसकी भी है भगवान् उसका भला करें !
शुभ-कामनाएं !!
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